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दुर्गा दास--मुंशी प्रेमचंद


अध्याय-4

खुदाबख्श ने कहा – ‘बेटी लालवा अपने माता-पिता की चिन्ता मत करो। मैं मुसलमान हूं; इसलिए अपने पकड़े जाने का भय तो था। ही नहीं, वहीं खड़ा रहा और सबकी सुनता रहा। थोड़ी ही देर में सारा भेद खुल गया। देशद्रोही चन्द्रसिंह ने मंगनी के लिए महाराज को एक पत्र लिखा था।कदाचित् यह बात तुझे न मालूम हो, महाराज उस दुष्ट स्वभाव से परिचित थे, इसलिये उसकी विनय पर जरा भी धयान न दिया। उसी बात पर चन्द्रसिंह ऐंठ गया और महाराज को नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगा। दैवयोग से किसी प्रकार उसे नाथू का आना और वीर दुर्गादास की सहायता के लिए यहां से राजपूतों को भेजा जाना मालूम हो गया।

 तुरन्त मुगल सरदार इनायतखां के पास दौड़ा गया और महाराज को राजद्रोही बताकर माड़ों पर चढ़ाई कर दी। यह सब था। तेरे ही लिए; परन्तु ईश्वर की कृपा थी, कि तू उस देशद्रोही दुष्ट के हाथ न लगी,नहीं तो आज बड़ी खराबी होती। जब लाख ढूंढने पर भी चन्द्रसिंह ने तेरा पता न पाया, तब तेरे माता-पिता को पकड़कर सोजितगढ़ में रखने का विचार किया, ईश्वर ने चाहा तो दो ही तीन दिन में वे छूट जायेंगे।


सुरंग समाप्त हो गई, तो मानसिंह ने आगे बढ़कर सुरंग का मुंह खोला और एक-एक करके सबको बाहर निकाला। मढ़ी में मनुष्यों की आहट पाते ही बाबा महेन्द्रनाथ जी आ पहुंचे। सबों ने उठकर प्रणाम किया। बाबाजी ने आशीर्वाद दिया। मानसिंह ने पूछने के पहले ही मुगलों का धावा और भागने का कारण कह सुनाया। बाबाजी ने लालवा की ओर देखा और उसकी पीठ पर हाथ फेरकर बोले बेटी! अब किसी बात की चिन्ता न करो। यहां आनन्द से रहो, तुम्हारे लिए अभी एक दासी बुलाये देता हूं। बेटी, यहां किसी की सामर्थ्य नहीं, कि तुम्हें कष्ट पहुंचा सके। बाबाजी ने सबको ढाढ़स दिया और सोने के लिए स्थान बताकर दूसरी मढ़ी में चले गये। डर और चिन्ता में नींद कहां? जैसे-तैसे रात कटी, सबेरा हुआ, खुदाबख्श ने जाने की आज्ञा मांगी। बाबा महेन्द्रनाथ ने कहा – ‘बेटा! ऐसे उतावले क्यों हो रहे हो? चले जाना। खुदाबख्श ने कहा – ‘बाबाजी, मुसलमान हूं; इसलिए मुझे मुसलमानों को अत्याचार करते देख लाज लगती है। सच्चे मुसलमान का धर्म नहीं कि दूसरे की मां-बेटी का सतीत्व नष्ट करें; दुखियों को सतायें। बहादुर सिपाही कहलाकर अबलाओं पर हाथ उठायें। अब मुझे क्षमा कीजिए और आज्ञा दीजिए, जहां तक हो सके, इस देश से शीघ्र ही चला जाऊं। फिर वह मानसिंह से बड़े प्रेम के साथ गले मिला। दोनों ने परस्पर तलवारें बदली और खुदाबख्श बाबाजी को प्रणाम कर चल दिया। थोड़ी दूर चलकर पीछे मुड़ा और बोला भाई मानसिंह! हमारी तलवार से किसी प्राणों की भिक्षा मांगने वाले कायर को न मारना। मानसिंह की आंखों में आंसू आ गये। खड़े-खड़े एकटक इस सच्चे मुसलमान सिपाही की ओर देखते रहे, जब तक आंखों से ओझल न हो गया।
अभी बाबा महेन्द्रनाथ, नाथू, लालवा और मानसिंह बैठे खुदाबख्श ही की बातचीत कर रहे थे, कि देखा कुछ मुगल सिपाही एक राजपूत को बड़ी निर्दयता से मारते हुए लिए जा रहे हैं। बाबाजी से देखा न गया। स्वभाव दयावान् था।दौड़कर पूछा भाई, इस बेचारे को क्यों मार रहे हो?सिपाहियों ने कहा – ‘बाबाजी! राजद्रोही महासिंह का पक्षपाती है, इसके पास महासिंह की अंगूठी भी है। बाबा महेन्द्रनाथ ने कहा – ‘यह कोई प्रमाण नहीं। थोड़ी देर के लिए मान लो, इसने अंगूठी किसी से छीन ली हो अथवा महासिंह ने ही दे डाली हो, या चुरा लाया हो, तो इस पर महासिंह का पक्षपाती होने का दोष कैसे लग सकता है? तुम्हारे धर्म-ग्रन्थ कुरान में किसी निर्दोष को मारना महापाप लिखा है। इसलिए इसे अभी छोड़ देंगे। बाबाजी की बातें सरदार को जंच गई, और राजपूत को छोड़ दिया।
बाबाजी राजपूत को अपनी मढ़ी में ले गये और पूछा बेटा, यह मानसिंह की अंगूठी कहां से ले आये और कहां लिये जा रहे थे? राजपूत ने कहा – ‘स्वामीजी! आपने हमारे प्राण बचाये हैं इसलिए आप पर भरोसा करना तो उचित है ही; परन्तु आप ही प्राण क्यों न ले लें, उस समय तक कुछ न बताऊंगा जब तक मुझे यह विश्वास न हो जायेगा, कि आप हमारे हितू हैं। राजपूत की आवाज नाथू को कुछ पहचानी हुई जान पड़ी। बाहर आया, देखते ही राजपूत ने पहचान लिया और बोला नाथू! तू यहां क्या कर रहा है? महासिंह ने दुर्गादास की सहायत करने का कोई प्रबंध किया या नहीं? नाथू अचम्भे में आकर बोला क्या सहायता नहीं पहुंची? कल ही दो सौ की दो टोलियां भेजी गई हैं। राजपूत ने कहा – ‘नहीं नाथू! अभी कोई नहीं पहुंचा! मुसलमानों ने चारों ओर से घेर लिया है। अब कहीं भोजनों का भी ठिकाना नहीं। यदि दो दिन और यों ही बीते तो फिर मारवाड़ सर्वनाश हो जायगा। बाबा महेन्द्रनाथ ने गरज कर कहा – ‘क्यों निराश होते हो? मारवाड़ स्वतंत्र होगा और वीर दुर्गादास का मनोरथ सफल होगा। पुरुष हो पुरुषार्थ करो, आज ही रात को अपने काका कल्याणसिह के पास जाओ और जो कुछ सहायता मिल सके, लेकर अरावली पहुंचो। तुम्हारी जय होगी।


बाबा महेन्द्रनाथ की आज्ञानुसार मानसिंह और करणसिंह बहन लालवा से विदा हो लगभग आधी रात को कल्याणसिंह के घर पहुंचे। देखा तो चौकीदार भी बेखबर सो रहे थे। जगाया, तो एक-एक करके सभी जग पड़े। ठाकुर घबरा उठे। पूछा बेटा मानसिंह! कुशल तो है, कैसे आये! मानसिंह! पैर छूकर बैठ गया और बोला काकाजी, क्या आपने माड़ों के समाचार नहीं सुने! दुष्ट चन्द्रसिंह अपने साथ सरदार इनायत खां को लाया और गढ़ी लुटवा ली, काका और काकी को पकड़ ले गया। यह सब कुछ बहन लालवा के लिए था।वीर दुर्गादास ने भी लालवा तथा। काका की रक्षा के लिए ही जोरावर खां को मारा था।, जिसका फल अब भोग रहा है। घर लुटा, गांव जला, मां जी की हत्या हुई, अरावली की पहाड़ी में जा छिपा वहां भी सुख नहीं। चारों ओर से मुगलों ने घेर रखा है; इसलिए काका जी, हम चाहते हैं कि ऐसे उपकारी पुरुष की आप ही कुछ सहायता करें। कल्याणसिंह ने कहा – ‘बेटा, यह तो सच है; परन्तु हमारा छोटा-सा गांव है, कहीं औरंगजेब को मालूम हो गया तो सत्यानाश कर डालेगा, हम कहीं के न रहेंगे। डर तो यही है। मानसिंह ने कहा – ‘काकाजी! राजपूत कभी इतना डरकर तो नहीं रहे, जितना आप डरते हैं। देश की स्वतन्त्राता पर मर मिटना राजपूतों का धर्म ही है और यदि आप हिचकते हैं तो आप स्वयं युद्ध के लिए न जाइए, थोड़े से वीर राजपूत जो आपकी आज्ञा में हों, सहायता के लिए भेज दीजिये। इसमें आप पर किसी प्रकार का दोष नहीं लगाया जा सकता है। मानसिंह के समझाने और हठ करने पर कल्याणसिंह ने साठ राजपूतों को दुर्गादास की सहायता के लिए जाने की आज्ञा दी। मानसिंह दूसरे दिन शाम को साठ राजपूतों को साथ लेकर अरावली की ओर चला।

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